संपूर्ण भागवत गीता | Bhagwat Geeta in Hindi PDF
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श्रीमद्भगवद्गीता विश्व-वाङ्मय का अपने आप में अनुपम ग्रंथ-रत्न है। जाति, वर्ग-वर्ण, देश-काल-पात्र आदि की किसी प्रकार की कोई संकीर्णता भागवत गीता में नहीं है। प्रत्येक स्थान, प्रत्येक समय में, प्रत्येक के लिए समान रूप से उपयोगी ग्रंथ! केवल अतीत की कथा या इतिहास नहीं, वर्तमान की युक्तियुक्त, तर्कसंगत सार्वभौम प्रेरणा का नाम है श्रीमद्भगवद्गीता। नीचे गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित Bhagwat Geeta in Hindi PDF (साधक संजीवनी) का संपूर्ण अध्याय अर्थ एवं व्याख्या सहित डाउनलोड के लिए दिया गया है -
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मेरा मानना है कि अगर आप गीता की टीका पढ़ना चाहते है तो आपको गीता प्रेस की स्वामी रामसुखदास जी महाराज द्वारा लिखित 'श्रीमद्भगवद्गीता (साधक संजीवनी)' ही पढ़नी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसी टीका है जिसे बहुत ज्ञानी या बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ-साथ कोई सामान्य सा व्यक्ति भी आसानी से पढ़कर समझ सकता है। इसमें गीता के हर श्लोक का शब्दार्थ, अनुवाद तथा व्याख्या साथ-साथ दी गई है।
रामसुखदास जी द्वारा 'साधक संजीवनी' लिखने का उद्देश्य श्रीमद्भगवद्गीता के आध्यात्मिक ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाना था। इस टीका द्वारा रामसुखदास जी महाराज ने गीता के रहस्य को जिस विस्तार से सरल तथा सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है। यह टीका भागवत गीता के आध्यात्मिक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से समझाने के साथ-साथ गीता के आधार पर एक साधक के जीवन के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करती है।
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श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के युद्ध से प्रकट हुई है। दो प्रकृतियां आपस में टकराती हैं, तो गीता रूपी ज्ञान का उदय होता है। ये प्रकृतियां हैं दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति । आसुरी प्रकृति का व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति को हड़प्प लेना चाहता है। पाण्डव अभी बालक थे, राज्य उनका था, जब तक पाण्डव वयस्क नहीं हो जाते तब तक यह राजदण्ड धृतराष्ट्र को दिया था, किन्तु वह राज्य को लौटाना नहीं चाहता।
धृतराष्ट्र का अर्थ ही होता है, 'धृतं राष्ट्रं येन स धृतराष्ट्रः' जो दूसरे की सम्पत्ति को हड़प्प ले। उसके सौ बेटे हैं। उनके पास भले ही आंखें हैं पर विवेक की आंखें नहीं है। वे भी अंधे के समान आचरण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि राज्य पांडवों का है, उसे वापस लौटा दो। राज्य नहीं लौटाते तो इनके जीवन निर्वाह के लिये कम से कम पांच गांव ही दे दो, किन्तु दुर्योधन पांच गांव देने को तैयार नहीं हुआ। तब श्रीकृष्ण ने कहा, अब सिवाय युद्ध के और कोई विकल्प नहीं है।
वहां से चलकर भगवान कृष्ण कुंती माता के पास आए, उन्हें सारा समाचार सुनाया। कुंती ने कहा कृष्ण मेरे बेटों से कह देना कि - "क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिये पुत्र उत्पन्न करती है, वह समय आ गया है (यदर्थं क्षत्रिया सूते सोऽयं कालः समागतः)। बेटो, तुम अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए धर्म युद्ध करो।"
अब युद्ध निश्चित हो गया, वह युद्ध कहां लड़ा जाए, इसके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन स्थान खोजने निकले। खोजते-खोजते कुरुक्षेत्र पहुंचे। वहां श्रीकृष्ण ने एक दृश्य देखा, एक किसान की स्त्री खेत में पानी दे रही थी। उसकी गोद में एक नन्हा सा बालक था। पानी में प्रवाह था, बार बार मेड टूट जाती थी। उस महिला ने उस बालक को पानी रोकने के लिए मेड में रख दिया। श्रीकृष्ण इस दृश्य को देख रहे थे। उन्होंने कहा, अर्जुन ! यह भूमि युद्ध के लिये उपयुक्त हैं। यहां मोह माया के लिये कोई स्थान नहीं है। अब लड़ाई का स्थान निश्चित हो गया।
दोनों ओर की सेना लड़ने को आमने सामने हुई। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण बने। उन्होंने उसका रथ ही नहीं संभाला जीवन की बागडोर भी संभाल ली। भीष्म ने शंख बजाकर युद्ध शुरू करने का चैलेंज दिया। अर्जुन ने कहा, मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिये, जिससे मैं निरीक्षण तो कर लूं कि इस युद्ध में कौन कौन लोग लड़ने को आए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।
वहां अर्जुन ने देखा कि ये सब तो अपने हैं, भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन हैं। मैं तुच्छ राज्य के लिये इनसे युद्ध करूं, इनकी छाती में छेद कर दूं, यह मुझसे नहीं हो सकेगा। इससे तो भीख मांगकर जीना अच्छा है। पर भगवान ने उसे समझाया कि अर्जुन! तू विचार कर, यहां कोई मरता नहीं है, कोई मारता नहीं है। चार बातों को याद रखो -
(1.) आत्मा मारने से कभी मरती नहीं है
(2.) शरीर समय आने पर बचता नहीं है
(3.) मनुष्य को अपने धर्म का पालन करना चाहिए
(4.) शाश्वत सत्य को समझना चाहिए
आत्मा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। यदि किसी को अपनी सत्ता का ज्ञान हो जाए तो मौत का भय नहीं रहता, यदि यह ज्ञान हो जाए कि मैं चेतन आत्मा हूं, तो जड़ता निकल जाती है और यदि यह बोध हो जाए कि मैं आनन्द स्वरूप हूं, तो मनुष्य कभी दुखी नहीं होता। उस आनन्द स्वरूप को जानने के लिये इन्द्रियाँ, मन-बुद्धि का संयम करना चाहिए। यद्यपि मन चंचल है, पर बार बार अभ्यास करने से यह वश में हो जाता है।
साथ में वैराग्य भी होना चाहिये। मन के एकाग्र होने पर उसमें से ज्ञान की एक लपट निकलती है, जो अज्ञान के परदे को जला देती है, तो उस समय मन की दशा बिना वायु के स्थान में रखे हुए दीपक की लपट के समान होती है, ज्ञान की लपट अज्ञान को जला देती है। मोह और अज्ञान मिट जाए तो मनुष्य को अपने स्वरूप की जानकारी हो जाती है। अपने स्वरूप को पहचान लेना ही गीता के अध्ययन का प्रयोजन है।
श्रीमद्भगवद्गीता के बारे में अधिकांश लोगों की यह मिथ्या धारणा है कि गीता पढ़ने से व्यक्ति सांसारिक जीवन के मध्यम मार्ग से कट कर असांसारिक हो जाता है, जब कि वास्तविकता यह है कि गीता के उपदेशों का प्रारम्भ तभी होता, है जब अर्जुन (पार्थ / पृथ्वी का पुत्र / नरों का प्रतिनिधि) यह कहते हुए अपने हथियार डाल देता है कि मैं इस प्रकार के सिद्धान्तहीन व अनैतिक आचरण करने वाले संसार में अपने ही लोगों से संघर्ष करने में असमर्थ हूँ, मैं संन्यास लेकर भिक्षा का अन्न खाने को अधिक उचित और प्रिय मानता हूँ बनिस्पत इस तरह के जीवन संग्राम से जिस जीवन संग्राम के लिए मेरे नैतिक मूल्य समर्थन नहीं देते हैं।
स्वनिर्मित नैतिक मूल्यों का आश्रय (सहारा) लेकर जीवन संग्राम से विमुख होने वाले अर्जुन को इस प्रकार की पलायन की मनोदशा से मुक्त कराने के लिए जिन सांख्य (सिद्धान्तों) का योग, प्रयोग, उपयोग करने के लिए जो शास्त्र कहा गया है उस शास्त्र के प्रति यह धारणा बना लेना कि गीता पढ़ने के बाद व्यक्ति पलायन वादी हो जाता है यह सृष्टि का सबसे बड़ा भ्रम है; मानव मनोविज्ञान का सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण अज्ञान है।
लेकिन यह कटु सत्य है कि इस तरह की भ्रामक अवधारणा भारतीय समाज में प्रचलित है कि गीता पढ़ने वाला संसार के प्रति उदासीन हो जाता है। गीता के प्रति यह दृष्टिकोण उन लोगों के कारण फैला हुआ है जो लोग रूढ़ी को आस्था मानकर गीता की ऐसी व्याख्या की है। गीता के प्रति यह भ्रामक दृष्टिकोण गीता शास्त्र के विरोधाभासी दिखने वाले सिद्धान्तों की सही समझ नहीं होने के कारण फैला हुआ है जबकि ये सिद्धान्त विरोधाभासी नहीं हैं। अतः मेरा आग्रह यह है कि वे भागवत गीता के बारे में भ्रामक धारणा नहीं बनायें।
Bhagwat Geeta in Hindi का यह PDF सार्वजनीन मानव-धर्म का एक अमूल्य ग्रन्थ है जो उन महर्षियों की रचना है जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं। इसकी रचना देववाणी संस्कृत में हुई थी और यह महाभारत नामक महाकाव्य में 'भीष्म-पर्व' के अंतर्गत उसकी कथा के साथ गुम्फित है। गीता हिन्दू धर्म का मूल ग्रन्थ तो है ही विश्व की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोग इसको मानव मात्र के लिए एक श्रेष्ठ ग्रन्थ के रूप में समादर देते हैं। हम कह सकते हैं कि मानव-मात्र के लिए इस अमर-ग्रन्थ में धर्म के मूल सत्य का दिग्दर्शन किया गया है। किसी मनुष्य के लिए आदर्श एवं लोक-कल्याणकारी जीवन व्यतीत करने का सर्वोत्तम संदेश इसमें प्रतिपादित हुआ है।
इन PDF को भी डाउनलोड कर पढ़े-
(1.) श्री दुर्गा चालीसा PDF
(2.) हनुमान बाहुक पाठ हिंदी में PDF
(3.) शिव तांडव स्तोत्र PDF
गीता प्रेस की 'श्रीमद्भगवद्गीता (साधक संजीवनी)' ही क्यों पढ़े?
मेरा मानना है कि अगर आप गीता की टीका पढ़ना चाहते है तो आपको गीता प्रेस की स्वामी रामसुखदास जी महाराज द्वारा लिखित 'श्रीमद्भगवद्गीता (साधक संजीवनी)' ही पढ़नी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसी टीका है जिसे बहुत ज्ञानी या बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ-साथ कोई सामान्य सा व्यक्ति भी आसानी से पढ़कर समझ सकता है। इसमें गीता के हर श्लोक का शब्दार्थ, अनुवाद तथा व्याख्या साथ-साथ दी गई है।
रामसुखदास जी द्वारा 'साधक संजीवनी' लिखने का उद्देश्य श्रीमद्भगवद्गीता के आध्यात्मिक ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाना था। इस टीका द्वारा रामसुखदास जी महाराज ने गीता के रहस्य को जिस विस्तार से सरल तथा सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है। यह टीका भागवत गीता के आध्यात्मिक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से समझाने के साथ-साथ गीता के आधार पर एक साधक के जीवन के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करती है।
महाभारत में भगवान कृष्ण को गीता का उपदेश क्यों देना पड़ा था?
श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के युद्ध से प्रकट हुई है। दो प्रकृतियां आपस में टकराती हैं, तो गीता रूपी ज्ञान का उदय होता है। ये प्रकृतियां हैं दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति । आसुरी प्रकृति का व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति को हड़प्प लेना चाहता है। पाण्डव अभी बालक थे, राज्य उनका था, जब तक पाण्डव वयस्क नहीं हो जाते तब तक यह राजदण्ड धृतराष्ट्र को दिया था, किन्तु वह राज्य को लौटाना नहीं चाहता।
धृतराष्ट्र का अर्थ ही होता है, 'धृतं राष्ट्रं येन स धृतराष्ट्रः' जो दूसरे की सम्पत्ति को हड़प्प ले। उसके सौ बेटे हैं। उनके पास भले ही आंखें हैं पर विवेक की आंखें नहीं है। वे भी अंधे के समान आचरण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि राज्य पांडवों का है, उसे वापस लौटा दो। राज्य नहीं लौटाते तो इनके जीवन निर्वाह के लिये कम से कम पांच गांव ही दे दो, किन्तु दुर्योधन पांच गांव देने को तैयार नहीं हुआ। तब श्रीकृष्ण ने कहा, अब सिवाय युद्ध के और कोई विकल्प नहीं है।
वहां से चलकर भगवान कृष्ण कुंती माता के पास आए, उन्हें सारा समाचार सुनाया। कुंती ने कहा कृष्ण मेरे बेटों से कह देना कि - "क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिये पुत्र उत्पन्न करती है, वह समय आ गया है (यदर्थं क्षत्रिया सूते सोऽयं कालः समागतः)। बेटो, तुम अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए धर्म युद्ध करो।"
अब युद्ध निश्चित हो गया, वह युद्ध कहां लड़ा जाए, इसके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन स्थान खोजने निकले। खोजते-खोजते कुरुक्षेत्र पहुंचे। वहां श्रीकृष्ण ने एक दृश्य देखा, एक किसान की स्त्री खेत में पानी दे रही थी। उसकी गोद में एक नन्हा सा बालक था। पानी में प्रवाह था, बार बार मेड टूट जाती थी। उस महिला ने उस बालक को पानी रोकने के लिए मेड में रख दिया। श्रीकृष्ण इस दृश्य को देख रहे थे। उन्होंने कहा, अर्जुन ! यह भूमि युद्ध के लिये उपयुक्त हैं। यहां मोह माया के लिये कोई स्थान नहीं है। अब लड़ाई का स्थान निश्चित हो गया।
दोनों ओर की सेना लड़ने को आमने सामने हुई। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण बने। उन्होंने उसका रथ ही नहीं संभाला जीवन की बागडोर भी संभाल ली। भीष्म ने शंख बजाकर युद्ध शुरू करने का चैलेंज दिया। अर्जुन ने कहा, मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिये, जिससे मैं निरीक्षण तो कर लूं कि इस युद्ध में कौन कौन लोग लड़ने को आए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।
वहां अर्जुन ने देखा कि ये सब तो अपने हैं, भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन हैं। मैं तुच्छ राज्य के लिये इनसे युद्ध करूं, इनकी छाती में छेद कर दूं, यह मुझसे नहीं हो सकेगा। इससे तो भीख मांगकर जीना अच्छा है। पर भगवान ने उसे समझाया कि अर्जुन! तू विचार कर, यहां कोई मरता नहीं है, कोई मारता नहीं है। चार बातों को याद रखो -
(1.) आत्मा मारने से कभी मरती नहीं है
(2.) शरीर समय आने पर बचता नहीं है
(3.) मनुष्य को अपने धर्म का पालन करना चाहिए
(4.) शाश्वत सत्य को समझना चाहिए
आत्मा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। यदि किसी को अपनी सत्ता का ज्ञान हो जाए तो मौत का भय नहीं रहता, यदि यह ज्ञान हो जाए कि मैं चेतन आत्मा हूं, तो जड़ता निकल जाती है और यदि यह बोध हो जाए कि मैं आनन्द स्वरूप हूं, तो मनुष्य कभी दुखी नहीं होता। उस आनन्द स्वरूप को जानने के लिये इन्द्रियाँ, मन-बुद्धि का संयम करना चाहिए। यद्यपि मन चंचल है, पर बार बार अभ्यास करने से यह वश में हो जाता है।
साथ में वैराग्य भी होना चाहिये। मन के एकाग्र होने पर उसमें से ज्ञान की एक लपट निकलती है, जो अज्ञान के परदे को जला देती है, तो उस समय मन की दशा बिना वायु के स्थान में रखे हुए दीपक की लपट के समान होती है, ज्ञान की लपट अज्ञान को जला देती है। मोह और अज्ञान मिट जाए तो मनुष्य को अपने स्वरूप की जानकारी हो जाती है। अपने स्वरूप को पहचान लेना ही गीता के अध्ययन का प्रयोजन है।
क्या भागवत गीता पढ़ने वाला व्यक्ति संसार के प्रति उदासीन हो जाता है?
श्रीमद्भगवद्गीता के बारे में अधिकांश लोगों की यह मिथ्या धारणा है कि गीता पढ़ने से व्यक्ति सांसारिक जीवन के मध्यम मार्ग से कट कर असांसारिक हो जाता है, जब कि वास्तविकता यह है कि गीता के उपदेशों का प्रारम्भ तभी होता, है जब अर्जुन (पार्थ / पृथ्वी का पुत्र / नरों का प्रतिनिधि) यह कहते हुए अपने हथियार डाल देता है कि मैं इस प्रकार के सिद्धान्तहीन व अनैतिक आचरण करने वाले संसार में अपने ही लोगों से संघर्ष करने में असमर्थ हूँ, मैं संन्यास लेकर भिक्षा का अन्न खाने को अधिक उचित और प्रिय मानता हूँ बनिस्पत इस तरह के जीवन संग्राम से जिस जीवन संग्राम के लिए मेरे नैतिक मूल्य समर्थन नहीं देते हैं।
स्वनिर्मित नैतिक मूल्यों का आश्रय (सहारा) लेकर जीवन संग्राम से विमुख होने वाले अर्जुन को इस प्रकार की पलायन की मनोदशा से मुक्त कराने के लिए जिन सांख्य (सिद्धान्तों) का योग, प्रयोग, उपयोग करने के लिए जो शास्त्र कहा गया है उस शास्त्र के प्रति यह धारणा बना लेना कि गीता पढ़ने के बाद व्यक्ति पलायन वादी हो जाता है यह सृष्टि का सबसे बड़ा भ्रम है; मानव मनोविज्ञान का सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण अज्ञान है।
लेकिन यह कटु सत्य है कि इस तरह की भ्रामक अवधारणा भारतीय समाज में प्रचलित है कि गीता पढ़ने वाला संसार के प्रति उदासीन हो जाता है। गीता के प्रति यह दृष्टिकोण उन लोगों के कारण फैला हुआ है जो लोग रूढ़ी को आस्था मानकर गीता की ऐसी व्याख्या की है। गीता के प्रति यह भ्रामक दृष्टिकोण गीता शास्त्र के विरोधाभासी दिखने वाले सिद्धान्तों की सही समझ नहीं होने के कारण फैला हुआ है जबकि ये सिद्धान्त विरोधाभासी नहीं हैं। अतः मेरा आग्रह यह है कि वे भागवत गीता के बारे में भ्रामक धारणा नहीं बनायें।
Bhagwat Geeta in Hindi का यह PDF सार्वजनीन मानव-धर्म का एक अमूल्य ग्रन्थ है जो उन महर्षियों की रचना है जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं। इसकी रचना देववाणी संस्कृत में हुई थी और यह महाभारत नामक महाकाव्य में 'भीष्म-पर्व' के अंतर्गत उसकी कथा के साथ गुम्फित है। गीता हिन्दू धर्म का मूल ग्रन्थ तो है ही विश्व की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोग इसको मानव मात्र के लिए एक श्रेष्ठ ग्रन्थ के रूप में समादर देते हैं। हम कह सकते हैं कि मानव-मात्र के लिए इस अमर-ग्रन्थ में धर्म के मूल सत्य का दिग्दर्शन किया गया है। किसी मनुष्य के लिए आदर्श एवं लोक-कल्याणकारी जीवन व्यतीत करने का सर्वोत्तम संदेश इसमें प्रतिपादित हुआ है।
इन PDF को भी डाउनलोड कर पढ़े-
(1.) श्री दुर्गा चालीसा PDF
(2.) हनुमान बाहुक पाठ हिंदी में PDF
(3.) शिव तांडव स्तोत्र PDF
- Addeddate
- 2021-12-19 05:05:47
- Identifier
- bhagwat-geeta_202112
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